शनिवार, 3 अप्रैल 2010

तप रे मधुर-मधुर मन!

सुमित्रानंदन पंत


तप रे मधुर-मधुर मन!

विश्व वेदना में तप प्रतिपल,

जग-जीवन की ज्वाला में गल,

बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल

तप रे विधुर-विधुर मन!

अपने सजल-स्वर्ण से पावन

रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,

स्थापित कर जग में अपनापन,

ढल रे ढल आतुर मन!

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन

गंध-हीन तू गंध-युक्त बन

निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,

मूर्तिमान बन, निर्धन!

गल रे गल निष्ठुर मन!

आते कैसे सूने पल

जीवन में ये सूने पल?

जब लगता सब विशृंखल,

तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!

खो देती उर की वीणा

झंकार मधुर जीवन की,

बस साँसों के तारों में

सोती स्मृति सूनेपन की!

बह जाता बहने का सुख,

लहरों का कलरव, नर्तन,

बढ़ने की अति-इच्छा में

जाता जीवन से जीवन!

आत्मा है सरिता के भी

जिससे सरिता है सरिता;

जल-जल है, लहर-लहर रे,

गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!

क्या यह जीवन? सागर में

जल भार मुखर भर देना!

कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-

ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!

सागर संगम में है सुख,

जीवन की गति में भी लय,

मेरे क्षण-क्षण के लघु कण

जीवन लय से हों मधुमय

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