महानगरीय सभ्यता, डाँ० ममता जैन
न हवा न धूप
बस रात के अँधेरे में
चारदीवारी को देख
सुरक्षित हो जाना
एक अकेली दुनिया के बीच
अपने भीतर की आवाजें
स्वयं सुन-सुनकर
अपनी ही परछाइयों
से बतियाना
पत्थरों के घरौदे में
तय करना पूरा सफर
और झपकियों के बीच ही
कैलेंडर की एक तारीख को
बदलकर
एक कदम बढना
चुप्चाप बदलते मौसम में
विकास और प्रगति के
महानगर के किनारे
खडे होकर
समय के चक्र के निशानों के
बीच लिफ्ट पर चढते-उतरते भी
मंजिलें गिनने में भी
सीढियों पर चढने से अधिक थकना
मुझे उस आदमखोर जंगल
में पहुँचाता है
जो महानगरो के बीचोबीच
नागफनी-सा फैलता
जा रहा है।
वार्ता का अर्थ है आपस मे बातचीत करना किसी समस्या पर चाहे वह किसी भी विषय पर हो, खुशी में चाहे वह किसी भी बात पर हो, दुख में चाहे वह किसी भी बात का हो।
मंगलवार, 6 अप्रैल 2010
सोमवार, 5 अप्रैल 2010
आधार की बाते करे
आधार की बाते करे, मोहन द्विवेदी
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें ।
वीरानियों के शहर में, बाजार की बातें करें ॥
कांपती गर्दन उठाये, कामना की गठरियाँ
बोझ से झुकती कमर, झाडी बनी है ठठरियाँ ।
बढ रही पल-पल उदासी, बेरुखी से खास की,
आँख में फिर भी बनी है, किरण धुंधली आस की ।
लाचारियों के दौर में, ललकार की बातें करें।
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें। ।
यह मुखौटा सभ्यता का, जब जरा सा हट गया,
सतयुग इतिहास का, एक और पन्ना फट गया ।
विष कहाँ से आ मिला, धारा पय्स्वी थी यहाँ,
मोक्ष पाने के लिए, डुबकी लगाते थे जहाँ ।
सूखी नदी तट ढह रहे, मझधार की बातें करें ।
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।
जा रहे हैं हम कहाँ, हमको नहीं आभास हैं,
खो गए हैं भीड में फिर भी नहीं विश्वांस हैं ।
वातावरण में सुखद दिन की, शेष आहट हैं अभी,
जिन्दगी भी शेष होगी, छटपटाहट है अभी।
दुश्मन जमाना हो गया तो, यार की बातें करे
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।
गा रहा हूँ गीत हैं, अपने समय के साज पर,
जानता हूँ फिर हंसोगे, तुम मेरी आवाज पर।
आज ही फिर कल बनेगा, कल बदलकर आज हैं
बाप के सर टोकरी थी, आप के सर ताज हैं
जिस पर खडा हैं यह महल, आधार की बातें करे
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें ।
वीरानियों के शहर में, बाजार की बातें करें ॥
कांपती गर्दन उठाये, कामना की गठरियाँ
बोझ से झुकती कमर, झाडी बनी है ठठरियाँ ।
बढ रही पल-पल उदासी, बेरुखी से खास की,
आँख में फिर भी बनी है, किरण धुंधली आस की ।
लाचारियों के दौर में, ललकार की बातें करें।
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें। ।
यह मुखौटा सभ्यता का, जब जरा सा हट गया,
सतयुग इतिहास का, एक और पन्ना फट गया ।
विष कहाँ से आ मिला, धारा पय्स्वी थी यहाँ,
मोक्ष पाने के लिए, डुबकी लगाते थे जहाँ ।
सूखी नदी तट ढह रहे, मझधार की बातें करें ।
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।
जा रहे हैं हम कहाँ, हमको नहीं आभास हैं,
खो गए हैं भीड में फिर भी नहीं विश्वांस हैं ।
वातावरण में सुखद दिन की, शेष आहट हैं अभी,
जिन्दगी भी शेष होगी, छटपटाहट है अभी।
दुश्मन जमाना हो गया तो, यार की बातें करे
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।
गा रहा हूँ गीत हैं, अपने समय के साज पर,
जानता हूँ फिर हंसोगे, तुम मेरी आवाज पर।
आज ही फिर कल बनेगा, कल बदलकर आज हैं
बाप के सर टोकरी थी, आप के सर ताज हैं
जिस पर खडा हैं यह महल, आधार की बातें करे
आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।
पहली कविता
पहली कविता ,जैनब
तेरी झील सी आंखों में,
क्यों डूबना चाहती हूँ
तेरी मस्त अदाओं पर,
मर मिटने का जज्बा क्यों हैं।
दीन-दुनिया कहाँ
अपनी भी खबर नहीं मुझको,
तेरे साथ में वजूद अपना
क्यों खोदेने की चाहत है।
तेरे चेहरे की कई चमक
खींचती क्यों है मुझे पता नहीं
किस दिन आपकी हो गई.........
शर्म हया ने जकड रखा है,
वरना आपको खत लिखने को दिल करता हैं।
तेरी झील सी आंखों में,
क्यों डूबना चाहती हूँ
तेरी मस्त अदाओं पर,
मर मिटने का जज्बा क्यों हैं।
दीन-दुनिया कहाँ
अपनी भी खबर नहीं मुझको,
तेरे साथ में वजूद अपना
क्यों खोदेने की चाहत है।
तेरे चेहरे की कई चमक
खींचती क्यों है मुझे पता नहीं
किस दिन आपकी हो गई.........
शर्म हया ने जकड रखा है,
वरना आपको खत लिखने को दिल करता हैं।
शनिवार, 3 अप्रैल 2010
तप रे मधुर-मधुर मन!
सुमित्रानंदन पंत
तप रे मधुर-मधुर मन!
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन!
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन,
ढल रे ढल आतुर मन!
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर मन!
आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल?
जब लगता सब विशृंखल,
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!
खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की!
बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन!
आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!
क्या यह जीवन? सागर में
जल भार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!
सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमय
तप रे मधुर-मधुर मन!
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर-विधुर मन!
अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन,
ढल रे ढल आतुर मन!
तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन
निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,
मूर्तिमान बन, निर्धन!
गल रे गल निष्ठुर मन!
आते कैसे सूने पल
जीवन में ये सूने पल?
जब लगता सब विशृंखल,
तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!
खो देती उर की वीणा
झंकार मधुर जीवन की,
बस साँसों के तारों में
सोती स्मृति सूनेपन की!
बह जाता बहने का सुख,
लहरों का कलरव, नर्तन,
बढ़ने की अति-इच्छा में
जाता जीवन से जीवन!
आत्मा है सरिता के भी
जिससे सरिता है सरिता;
जल-जल है, लहर-लहर रे,
गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!
क्या यह जीवन? सागर में
जल भार मुखर भर देना!
कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-
ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!
सागर संगम में है सुख,
जीवन की गति में भी लय,
मेरे क्षण-क्षण के लघु कण
जीवन लय से हों मधुमय
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