मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

महानगरीय सभ्यता

महानगरीय सभ्यता, डाँ० ममता जैन


न हवा न धूप

बस रात के अँधेरे में

चारदीवारी को देख

सुरक्षित हो जाना

एक अकेली दुनिया के बीच

अपने भीतर की आवाजें

स्वयं सुन-सुनकर

अपनी ही परछाइयों

से बतियाना

पत्थरों के घरौदे में

तय करना पूरा सफर

और झपकियों के बीच ही

कैलेंडर की एक तारीख को

बदलकर

एक कदम बढना

चुप्चाप बदलते मौसम में

विकास और प्रगति के

महानगर के किनारे

खडे होकर

समय के चक्र के निशानों के

बीच लिफ्ट पर चढते-उतरते भी

मंजिलें गिनने में भी

सीढियों पर चढने से अधिक थकना

मुझे उस आदमखोर जंगल

में पहुँचाता है

जो महानगरो के बीचोबीच

नागफनी-सा फैलता

जा रहा है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें