मंगलवार, 12 जनवरी 2010

आदमी
लहरों के साथ डूबता-उतरता हैं आदमी।
अपनो के साथ रोता-मुस्कराता हैं आदम।
कभी खुद ही रोता हैं तो कभी,
दूसरो को रुलाता हैं आदमी।
एक-दूसरे के आसपास होकर,
कितना कटा-कटा सा, दूर दूर हैं आदमी।
फ़टे-चिथडों में तन ढांके हुए खुद का,
खुद को भेडियों से बचाता हैं आदमी।
कभी खुद को अपनों के लिए बेचता तो,
कभी दुसरों को अपने लिए खरीदता हैं आदमी।
कभी रेल की ड्योढी पर मासूम सा बैंठा,
तो कभी फ़ासी पर लटका नजर आता हैं आदमी।