शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

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गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

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बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

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मंगलवार, 6 अप्रैल 2010

महानगरीय सभ्यता

महानगरीय सभ्यता, डाँ० ममता जैन


न हवा न धूप

बस रात के अँधेरे में

चारदीवारी को देख

सुरक्षित हो जाना

एक अकेली दुनिया के बीच

अपने भीतर की आवाजें

स्वयं सुन-सुनकर

अपनी ही परछाइयों

से बतियाना

पत्थरों के घरौदे में

तय करना पूरा सफर

और झपकियों के बीच ही

कैलेंडर की एक तारीख को

बदलकर

एक कदम बढना

चुप्चाप बदलते मौसम में

विकास और प्रगति के

महानगर के किनारे

खडे होकर

समय के चक्र के निशानों के

बीच लिफ्ट पर चढते-उतरते भी

मंजिलें गिनने में भी

सीढियों पर चढने से अधिक थकना

मुझे उस आदमखोर जंगल

में पहुँचाता है

जो महानगरो के बीचोबीच

नागफनी-सा फैलता

जा रहा है।

सोमवार, 5 अप्रैल 2010

आधार की बाते करे

आधार की बाते करे, मोहन द्विवेदी


आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें ।

वीरानियों के शहर में, बाजार की बातें करें ॥

कांपती गर्दन उठाये, कामना की गठरियाँ

बोझ से झुकती कमर, झाडी बनी है ठठरियाँ ।

बढ रही पल-पल उदासी, बेरुखी से खास की,

आँख में फिर भी बनी है, किरण धुंधली आस की ।

लाचारियों के दौर में, ललकार की बातें करें।

आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें। ।

यह मुखौटा सभ्यता का, जब जरा सा हट गया,

सतयुग इतिहास का, एक और पन्ना फट गया ।

विष कहाँ से आ मिला, धारा पय्स्वी थी यहाँ,

मोक्ष पाने के लिए, डुबकी लगाते थे जहाँ ।

सूखी नदी तट ढह रहे, मझधार की बातें करें ।

आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।

जा रहे हैं हम कहाँ, हमको नहीं आभास हैं,

खो गए हैं भीड में फिर भी नहीं विश्वांस हैं ।

वातावरण में सुखद दिन की, शेष आहट हैं अभी,

जिन्दगी भी शेष होगी, छटपटाहट है अभी।

दुश्मन जमाना हो गया तो, यार की बातें करे

आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।

गा रहा हूँ गीत हैं, अपने समय के साज पर,

जानता हूँ फिर हंसोगे, तुम मेरी आवाज पर।

आज ही फिर कल बनेगा, कल बदलकर आज हैं

बाप के सर टोकरी थी, आप के सर ताज हैं

जिस पर खडा हैं यह महल, आधार की बातें करे

आओ चलो अब पास बैठो प्यार की बातें करें।

पहली कविता

पहली कविता ,जैनब


तेरी झील सी आंखों में,

क्यों डूबना चाहती हूँ

तेरी मस्त अदाओं पर,

मर मिटने का जज्बा क्यों हैं।

दीन-दुनिया कहाँ

अपनी भी खबर नहीं मुझको,

तेरे साथ में वजूद अपना

क्यों खोदेने की चाहत है।

तेरे चेहरे की कई चमक

खींचती क्यों है मुझे पता नहीं

किस दिन आपकी हो गई.........

शर्म हया ने जकड रखा है,

वरना आपको खत लिखने को दिल करता हैं।

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

तप रे मधुर-मधुर मन!

सुमित्रानंदन पंत


तप रे मधुर-मधुर मन!

विश्व वेदना में तप प्रतिपल,

जग-जीवन की ज्वाला में गल,

बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल

तप रे विधुर-विधुर मन!

अपने सजल-स्वर्ण से पावन

रच जीवन की मूर्ति पूर्णतम,

स्थापित कर जग में अपनापन,

ढल रे ढल आतुर मन!

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन

गंध-हीन तू गंध-युक्त बन

निज अरूप में भर-स्वरूप, मन,

मूर्तिमान बन, निर्धन!

गल रे गल निष्ठुर मन!

आते कैसे सूने पल

जीवन में ये सूने पल?

जब लगता सब विशृंखल,

तृण, तरु, पृथ्वी, नभमंडल!

खो देती उर की वीणा

झंकार मधुर जीवन की,

बस साँसों के तारों में

सोती स्मृति सूनेपन की!

बह जाता बहने का सुख,

लहरों का कलरव, नर्तन,

बढ़ने की अति-इच्छा में

जाता जीवन से जीवन!

आत्मा है सरिता के भी

जिससे सरिता है सरिता;

जल-जल है, लहर-लहर रे,

गति-गति सृति-सृति चिर भरिता!

क्या यह जीवन? सागर में

जल भार मुखर भर देना!

कुसुमित पुलिनों की कीड़ा-

ब्रीड़ा से तनिक ने लेना!

सागर संगम में है सुख,

जीवन की गति में भी लय,

मेरे क्षण-क्षण के लघु कण

जीवन लय से हों मधुमय

मंगलवार, 30 मार्च 2010

वंदे मातरम्

वंदे मातरम्


सुजलाम, सुफलाम, मलयज शीतलाम,

शस्य श्यामलम् मातरम्।

शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम्,

फुल्ल कुसमिता द्रमदल शोभिनीम्।

सुहासिनीम् सुमुधुर भाषिणीम्

सुखदाम वरदाम मातरम्।

वंदे मातरम्॥

कोटि-कोटि कंठ कल-कल निनाद कराले,

कोटि-कोटि भुजैधृत खर करवाले

अबला केनो मा एतो बले

बहुबल धारिणीम्, नमामि तारिणीम्,

रिपुदल वारिणीम् मातरम्।

वंदे मातरम्॥

तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि हृदि तुमि मर्म,

त्वं हि प्राणा शरीरे

बाहुते तुमि माँ शक्ति, हृदये तुमि माँ भक्ति

तोमारई प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे।

वंदे मातरम्॥

त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणी

कमला कमल-दल विद्यरिणी

वाणी विद्यादायिनी नमामि त्वाम्

नमामि कमलाम, अमलाम, अतुलाम

सुजलाम-सुफलाम, मातरम्

वंदे मातरम्

श्यामलाम्, सरलाम, सुस्मिताम, भुषिताम

धारिणीम भरणीम मातरम्

वंदे मातरम्॥
सबसे पहले तो श्रीमान  जी को धन्यवाद जो मेरे इस ब्लाग से सबसे पहले जुडे। यह मेरी ज़िन्दगी का पहला लेख है अगर इसमें कोई गलती हो जाऐ तो उसके लिए मैं क्षमा चाहुँगा और पाठको से विनती है कि अपने सुझाव अवश्य दें।
भारत में विदेशी शिक्षा संस्थानो कि आवश्यकता एवं महत्व

मुझे पता चला कि अभी कुछ दिन पहले सरकार ने विदेशी शिक्षा संस्थानो की स्थापना सम्बंधी बिल को मंजूर कर लिया है। अब भारत मे भी विदेशी शिक्षा संस्थान खुल सकेंगे जिससे उन भारतिय विद्यार्थियो को लाभ प्राप्त होगाअ जो विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करना चाहते है पर विदेश जाने व वहाँ रहने का खर्च नहीं वहन कर सकते है,  बहुँत खुशी की बात है अब कनाडा, अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया आदि देशों में न जाकर विद्यार्थियो को अपने ही देश मे विदेशी शिक्षा संस्थानो की डिग्री प्राप्त हो जाया करेगी जिससे अब किसी भी भारतिय विद्यार्थि का विदेश में अपमान व उसकी हत्या न होगी।


परन्तु इस बिल को मंजूर करने की यहीं एक मात्र कारण तो नहीं हो सकती है तो फिर क्या कारण है इसे मंजूर करने का ? क्या हमारे देश में उत्तम किस्म के शिक्षा संस्थान नहीं है? क्या हमारे शिक्षा संस्थानो में अध्यापन कार्य में कार्यरत शिक्षक कम योग्यता रखते हैं ?


नहीं, ये सब गलत है क्योकि हमारे देश के शिक्षा संस्थान कम उत्तम कोटि के नहीं है, वे उत्तम कोटि के है पर ज्ञान के मामले में, कमी है तो बाहरी सजावट व किमती तकनीकि उपकरणों की हमारे शिक्षा संस्थानों में आवश्यकता है तो निवेश कि यदि विदेशी शिक्षा संस्थानों की भाँति हमारे शिक्षा संस्थानो को अच्छे उपकरण और उनकी थोडी सी सजावट कर दी जाए तो हमारे शिक्षा संस्थान भी उत्तम कोटी के होंगे। यह कहना भी गलत है की हमारे शिक्षा संस्थानो मे कार्यरत शिक्षक कम योग्यता रखते है अगर आकडो पर जाये तो भारत के शिक्षको से आन लाईन ट्यूशन लेने वाले विदेशी छात्रो की संख्या, भारत के आन लाईन ट्यूशन लेने वाले छात्रो से कहीं अधिक होंगी।


भारत में खुलने वाले इन शिक्षा संस्थानो में कम से कम ८०% शिक्षक भारतिय ही होंगे तो जब अपने ही शिक्षको से पढना है तो फिर इन विदेशी शिक्षा संस्थानो के खुलने का क्या लाभ है ? बहुत सोच विचार करने पर कुछ तथ्य प्रकट होते है जो कुछ हद तक सही लगते है जैसे इन संस्थानो की स्थापना में भूमि कि आवश्यकता होगी जिस कारण बडी मात्रा में भूमि का अधिग्रहण किया जायेगा जिससे गाँव कि जो कृषि भूमि है वह कम हो जायेगी जिसका असर हमारे खाद्यान पर पडेगा किसान को उसकी भूमि का मूल्य प्राप्त हो जायेगा पर जिस कृषि भूमि पर पहले अनाज पैदा किया जाता था वह इस अधिग्रहण से समाप्त हो जायेगा, इस सब के उपरांत भी भारत में पूँजी तो आयेगी परन्तु उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं हो पायेगी अनाज कई पैदावार कम हो जायेगी जिसका असर भारतिय बाजार पर भी पडेगा।


अब से ४-५ साल पहले भी विकास के नाम पर प्रवासी भारतियो ने पूँजी लगायी और भूमि को खरीदा गया उस भूमि पर बहुमंजिलि ईमारतें तैयार कि गयी जिससे भूमि का मूल्य असमान गति से बडा साथ में सरकार ने भी नयी-नयी योजनाए घोषित करके उस गति को ओर भी अधिक कर दिया जिसे हम सभी नए देखा है और उसका क्या असर हुआ है वह भी सभी लोगों ने देखा है।


अब हम अपनी बात पर वापस आते है कि क्या हमारे देश में विदेशी शिक्षा संस्थानों की आवश्यकता है तो मेरा कहना है नहीं, हमें अपने ही शिक्षा संस्थानों में ही वे सभी सुविधाऐ उपलब्ध कराने का प्रयत्न करना चाहिए वो भी अपने देश के लोगों, सरकार व निजी संस्थानो द्वारा, विदेशों से सहायता लेकर नहीं क्योकि कोई भी आर्थिक विकास ऋण लेकर नहीं किया जा सकता हैं जबकि यह ज्ञात हो कि वह ऋण नहीं चुकाया जा पायेगा केवल उसका ब्याज हि दिया जाता रहेगा। यह कोई पूर्ण उपचार नहीं हैं यह तो दिखावटी आराम मात्र हैं।


क्यों बार बार भारत विदेशीयो के लिए कमाई का एक केंद्र बन जाता है जब कभी भी आर्थिक मंदी आती है तो सभी की निगाहें भारत की ओर हो जाती है। सभी विदेशीयो को तो भारत में बहुत धन सम्पदा दिखायी देती है पर स्वयं भारतियो को यह नहीं दिखायी देता हैं। वे लोग विकास करके आगे निकल जाते है और हम उनसे पीछे रह जाते हैं। जबकि आगे हमें होना चाहिए व पीछे उन्हें, पर होता इसका उल्टा हैं।अब भी यही होगा इन शिक्षा संस्थानो से जो लाभ प्राप्त होगा वो सब विदेश चला जाऐगा, कागज पर ये लिख देना कि लाभ को वापस नहीं ले जाया जायेगा बल्कि भारत में हीं निवेश किया जाएगा काले रंग कि रेखाऐ मात्र रह जाऐंगी इस पर निगरानी कौन रखेगा, जो छात्र उसमें पढेंगे वे या पढाने वाले शिक्षक ये पढेंगे-पढायेंगें या निगरानी करेंगे। बाकि लोगो को तो समय ही नहीं होगा सब अपने-अपने कार्यो में व्यस्त होंगे।


अब सोचने कि बारी हमारी है कि हमें क्या निर्णय लेना है, दूसरों पर नहीं छोडना हैं।

बुधवार, 10 मार्च 2010

"सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना झाँसी की रानी"

सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,
बूढे भारत में आई फिर से नयी जवानी थी,
गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में वह तलवार औरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कानपूर के नाना की मुँहबोली बहन छबील थी,
लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ्ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।
वीर शिवाजी की गाथायें उसकी याद ज़्बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,
देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध - व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,
सैन्य घेरना, दुर्ग तोडना ये थे उस्के प्रिय खिलवार।
महाराष्टर-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,
चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव से मिली भ्वानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों मेम उजियाली छाई,
किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूडिया कब भाई,
रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।
निसंतान मरे राजा जी रानी शोक-स्मानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
बुझा दीप झाँसी का तब डलहौजी मन में हरषाया,
राज्य हडप करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फ़ौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया
लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।
अश्रुपूर्णा रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
अनुनय विनय नहीं सुनती हैं, विकट शासकों की माया,
व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया
डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,
राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।
रानी दासी बनी, बनी न्यह दासी अब महारानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,
कैद पेशवा था बिठुर में, हुआ नागपुर का भी घात,
उदयपुर, तंजौर, सतारा, कर्नाटक की कौन बिसात ?
जबकि सिंध, पंजाब, ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-विपात।
बंगाले, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी रोयीं रिनवासों में, बेगम गम से थीं बेज़ार,
उनके गहने कपडे बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सेरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,
’नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार’।
यों परदे की इज़्जत परदेसी के हाथ बिकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
कुटियों में बी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,
वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बहिन छ्बीली ने रण चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।
हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
महलों ने दी आग, झोंपडी ने ज्वाला सुलगाई थी,
यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपुर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपुर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इस स्वतंत्रता महायज्ञ में केई वीरवर आए काम,
नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,
भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।
लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
इनकी गाथा छोड चले हम झाँसी के मैदानों में,
जहाँ खडी हैं लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,
लेंफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बडा जवानो में,
रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वन्द्ध असमानो में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी बडी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,
घोडा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,
यमुना तट पर अग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,
विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।
अग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोडी राजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
विजय मिली, पर अग्रेजों की फिर सेना घिर आई थी,
अबके जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुँह की खाई थी,
काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आयी थी,
युद्ध क्षेत्र में उन दोंनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीचे ह्यूरोज़ आ गया, हाय घिरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,
किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,
घोडा अडा, नया घोडा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,
मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,
अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,
दिखा गई पथ, सिखा गयी हम्को जो सीख सिखानी थी
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥
जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,
यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,
होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,
खूब लडी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

मंगलवार, 12 जनवरी 2010

आदमी
लहरों के साथ डूबता-उतरता हैं आदमी।
अपनो के साथ रोता-मुस्कराता हैं आदम।
कभी खुद ही रोता हैं तो कभी,
दूसरो को रुलाता हैं आदमी।
एक-दूसरे के आसपास होकर,
कितना कटा-कटा सा, दूर दूर हैं आदमी।
फ़टे-चिथडों में तन ढांके हुए खुद का,
खुद को भेडियों से बचाता हैं आदमी।
कभी खुद को अपनों के लिए बेचता तो,
कभी दुसरों को अपने लिए खरीदता हैं आदमी।
कभी रेल की ड्योढी पर मासूम सा बैंठा,
तो कभी फ़ासी पर लटका नजर आता हैं आदमी।